हिन्दी साहित्य काव्य संकलन

मंगलवार, 13 मार्च 2012

मदर इंडिया

मदर इंडिया - (कवि - गीत चतुर्वेदी)

उन दो औरतों के लिए जिन्होंने कुछ दिनों तक शहर को डुबो दिया था
दरवाज़ा खोलते ही झुलस जाएँ आप शर्म की गर्मास से

खड़े-खड़े ही गड़ जाएँ महीतल, उससे भी नीचे रसातल तक

फोड़ लें अपनी आँखें निकाल फेंके उस नालायक़ दृष्टि को

जो बेहयाई के नक्‍की अंधकार में उलझ-उलझ जाती है

या चुपचाप भीतर से ले आई जाए

कबाट के किसी कोने में फँसी इसी दिन का इंतज़ार करती

कोई पुरानी साबुत साड़ी जिसे भाभी बहन माँ या पत्नी ने

पहनने से नकार दिया हो

और उन्हें दी जाए जो खड़ी हैं दरवाज़े पर

माँस का वीभत्स लोथड़ा सालिम बिना किसी वस्त्र के

अपनी निर्लज्जता में सकुचाईं

जिन्हें भाभी माँ बहन या पत्नी मानने से नकार दिया गया हो

कौन हैं ये दो औरतें जो बग़ल में कोई पोटली दबा बहुधा निर्वस्त्र

भटकती हैं शहर की सड़क पर बाहोश

मुरदार मन से खींचती हैं हमारे समय का चीर

और पूरी जमात को शर्म की आँजुर में डुबो देती हैं

ये चलती हैं सड़क पर तो वे लड़के क्यों नहीं बजाते सीटी

जिनके लिए अभिनेत्रियों को यौवन गदराया है

महिलाएँ क्यों ज़मीन फोड़ने लगती हैं

लगातार गालियां देते दुकानदार काउंटर के नीचे झुक कुछ ढूंढ़ने लगते हैं

और वह कौन होता है जो कलेजा ग़र्क़ कर देने वाले इस दलदल पर चल

फिर उन्हें ओढ़ा आता है कोई चादर परदा या दुपट्टे का टुकड़ा
ये पूरी तरह खुली हैं खुलेपन का स्‍वागत करते वक़्त में

ये उम्र में इतनी कम भी नहीं, इतनी ज़्यादा भी नहीं

ये कौन-सी महिलाएँ हैं जिनके लिए गहना नहीं हया

ये हम कैसे दोगले हैं जो नहीं जुटा पाए इनके लिए तीन गज़ कपड़ा
ये पहनने को मांगती हैं पहना दो तो उतार फेंकती हैं

कैसा मूडी कि़स्म का है इनका मेटाफिजिक्‍स

इन्हें कोई वास्ता नहीं कपड़ों से

फिर क्यों अचानक किसी के दरवाज़े को कर देती हैं पानी-पानी
ये कहाँ खोल आती हैं अपनी अंगिया-चनिया

इन्हें कम पड़ता है जो मिलता है

जो मिलता है कम क्यों होता है

लाज का व्यवसाय है मन मैल का मंदिर

इन्हें सड़क पर चलने से रोक दिया जाए

नेहरू चौक पर खड़ा कर दाग़ दिया जाए

पुलिस में दे दें या चकले में पर शहर की सड़क को साफ़ किया जाए
ये स्त्रियाँ हैं हमारे अंदर की जिनके लिए जगह नहीं बची अंदर

ये इम्तिहान हैं हममें बची हुई शर्म का

ये मदर इंडिया हैं सही नाप लेने वाले दर्जी़ की तलाश में

कौन हैं ये

पता किया जाए.



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बोलते जाओ

बोलते जाओ - (कवि - गीत चतुर्वेदी)

उस आदमी के लिए जो अपनी क़ब्र मे ज़िंदा है
तुम्हें विधायक का सम्मान करना था

जिसके लिए ज़रूरी था झुकना

तुम्हें हाथ पीछे बांध लेने थे

और बताना था

इज़्ज़तदार हँसी उतनी ही खुलती है

जितने में खुल न जाए इज़्ज़त का नाड़ा
जब रात के तीसरे पहर खटका होगा तुम्हारा दरवाज़ा

तब भी तुम्हारे मन में खटका नहीं हुआ होगा

ये चार मुश्टंडे तभी निकलते थे बंगले के बाहर

जब काम सफारी सूट वालों के हाथ से निकल जाता था
बताओ मुझे मैं सुन रहा हूं

यह तुम्हारी पीठ का दर्द था

या कमर की अकड़

जो तुम्हें झुकने में इतनी दिक़्क़त होती थी

सुन रहा हूँ तुम्हें जो तुम कह रहे हो-
क्या आपको नहीं लगता

हाथों को कुछ और लंबा होना चाहिए था

इनके छोटे होने के कारण

झुकना पड़ता है हर बार

पूँछ को ग़ायब नहीं होना था

जब उसके हिलने का वक़्त होता है

फुरफुरी-सी होने लगती है उसकी जगह पर
कितना नाराज़ हुआ था विधायक

विधायक हमेशा नाराज़ क्यों रहता है हमसे
वह तुमसे मांग रहा था ज़मीन

जबकि तुम कुछ पूछना चाहते थे

तुमने कहा-

जब मेरी लंबाई सवा फीट थी

तो साढ़े छह वर्ग फीट ज़मीन थी मेरे लिए

मैं पाँच फुट छह इंच का हूँ आज

और ज़मीन सिकुड़कर तीन फीट बची है
तुम क्यों नहीं रोए एक बार भी

जबकि तुम्हारे भीतर रो रही थी तीन फीट ज़मीन

या हो सकता है रोए होगे तुम अपने ही भीतर

जैसे रोया करती है ज़मीन
तुम क़दम-क़दम पर खीझते थे

चाहते थे कि तुम्हारे घर तक आए पानी

सूखा न रहे बाथरूम का नल

सिर्फ़ जन्मदिन पर ख़रीदनी पड़े मोमबत्ती

ढाई सौ लीटर की टंकी में आए ढाई सौ लीटर पानी

पर टंकी बनाने में खो ही जाते हैं बीस-पच्चीस लीटर

अक्सर नहीं आता पानी

गुल रहती है बिजली
वहाँ अभी तक एक पुल का काम चल रहा है

और मशीनों के अग़ल-बग़ल से

लोग निकाल लेते हैं गाडि़याँ

वहां पचासों इमारतें बन रही हैं

जिनमें लोन देने से मना कर देगी एल.आई.सी.

वहाँ कितनी सड़कों पर गड्ढे हैं

ये सब कितनी बड़ी चिंताएँ हैं

बजाए चिंतित होना कि

कोई रिसॉर्ट नहीं इस शहर में ढंग का
विधायक कितना हुआ नाराज़

वह हमेशा नाराज़ क्यों रहता है हमसे
तुम चिंता मत करो

मैं सुन रहा हूँ

वह तुम्हारी ज़मीन ख़रीदना चाहता था

तुम पर क़ब्ज़ा करना चाहता था

बोलते जाओ

मैं सुन रहा हूँ

तुम्हारी आवाज़ आ रही है उस ज़मीन के नीचे से

जहाँ तुम भटक रहे हो

और बार-बार कह रहे हो

तुम्हें अपनी ज़मीन नहीं देनी



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बुरी लड़कियाँ, अच्छी लड़कियाँ

बुरी लड़कियाँ, अच्छी लड़कियाँ - (कवि - गीत चतुर्वेदी)

`मीट लोफ़´ के संगीत के लिए
साँप पालने वाली लड़की साँप काटे से मरती है

गले में खिलौना आला लगा डॉक्टर बनने का स्वांग करती लड़की

ग़लत दवा की चार बूंदें ज़्यादा पीने से

चिट्ठियों में धँसी लड़की उसकी लपट से मर जाती है

और पानी में छप्-छप् करने वाली उसमें डूब कर

जो ज़ोर से उछलती है वह अपने उछलने से मर जाती है

जो गुमसुम रहती है वह गुमसुम होने से

जिसके सिर पर ताज रखा वह उसके वज़न से

जिसके माथे पर ज़हीन लिखा वह उसके ज़हर से

जो लोकल में चढ़ काम पर जाती है वह लोकल में

जो घर में बैठ भिंडी काटती है वह घर में ही

दुनिया में खुलने वाली सुरंग में घुसती है जो

वह दुनिया में पहुँचने से पहले ही मर जाती है

बुरी लड़कियाँ मर कर नर्क में जाती हैं

और अच्छी लड़कियाँ भी वहीं जाती हैं



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बच्ची की कहानी

बच्ची की कहानी - (कवि - गीत चतुर्वेदी)

उसकी कहानी में कोई भी आ सकता है
पर उसका जाना वह ख़ुद तय करती है
गुड़ियों से खेलती है क्ले से फूल बनाती है
ज़्यादातर समय आप उसे कंप्यूटर पर या काग़ज़ पर
चित्र बनाते या रंग भरते देख सकते हैं

उसकी साँस से फूलती है उसकी कहानी।



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फीलगुड

फीलगुड - (कवि - गीत चतुर्वेदी)

कोशिश करता हूँ किसी भी अभिव्यक्ति से
किसी को भी ठेस न पहुंचे
जिस पेशे में हूँ मैं
वहां किसी गुनाह की तरह
कठिन शब्दों को छाँट देता हूँ
कठिन वाक्यों को बना देता हूँ सरल
जबकि हालात दिन-ब-दिन और कठिन होते जाते
मैं समय का संपादन नहीं कर पाता
कितना खुशकिस्मत हूँ
एक जीवन में कितनी स्त्रियों का प्रेम मिला
कितने मित्रों कितने बच्चों का
प्रेम के हर पल में जन्म लेता हूँ
पल-बढ़कर प्रेम की ही किसी आदिम गुफा में
छिप जाता हूँ धीरे-धीरे मृत होता
कंधे झिड़क कहता हूँ ख़ुद से
एक जीवन और चाहिए पाया हुआ प्रेम लौटने को
घृणा की वर्तनी में कोई ग़लती नहीं होती मुझसे
नफ़रत में नुक्ता लगाना कभी नहीं भूलता


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प्रेम कविता

प्रेम कविता - (कवि - गीत चतुर्वेदी)

आत्महत्या का बेहतरीन तरीक़ा होता है
इच्छा की फ़िक्र किए बिना जीते चले जाना
पाँच हज़ार वर्ष से ज़्यादा हो चुकी है मेरी आयु
अदालत में अब तक लम्बित है मेरा मुक़दमा
सुनवाई के इंतज़ार से बड़ी सज़ा और क्या

बेतहाशा दुखती है कलाई के ऊपर एक नस
हृदय में उस कृत्य के लिए क्षमा उमड़ती है
जिसे मेरे अलावा बाक़ी सब ने अपराध मना

संविधान की क़िताब में इस पर कोई अनुच्छेद नहीं।



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प्रश्न अमूर्त

प्रश्न अमूर्त - (कवि - गीत चतुर्वेदी)

शकरपारे की लम्बी डली को छाँपे चिपकी चीटियाँ हैं
या सन 47 में बँट गई ज़मीन के उस पार से आती
ठसाठस कोई ट्रेन
००
सबसे बड़ा छल इतिहास के साथ हुआ
इतिहास के नाम पर इतिहास के खिलाफ़
याददाश्त बढ़ाने की दवा बहुत बन गई
कोई ऎसी दवा बनाओ जिससे भूल जाया जाए सब
००
उस प्रोटान की मज़बूरी समझो
जो चाहे जितनी बगावत कर ले
रहना उसे इलैक्ट्रान के दायरे में ही है
निरन्तर भटकन की अभिशप्त गति से
अपने ही पानी में डूब गया
कोई बदबख़्त समुद्र
००
एक दिन जब मर चुकी होगी मेरी भाषा
किस भाषा में पढ़ोगे तुम मेरी भाषा का मर्सिया
इसकी तस्वीर पर टंगे फूल को कहोगे
किस भाषा में कौन सा फूल?



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पोस्टमैन

पोस्टमैन - (कवि - गीत चतुर्वेदी)

'निर्वासन के दिनों में एक छोटे द्वीप पर नेरूदा के साथी के लिए
अपने कमरे में लेटा पोस्टमैन है

जो नेरूदा को पहुँचाता था डाक

हालाँकि उन्हें गए अरसा बीत गया

जैसे आवाज़ करती है सुने जाने का इंतज़ार

और भटकती है हवा में अनंतकाल तक

जैसे दृश्य से जुड़ा होता है दृष्टि का इंतज़ार

घर से निकली बेटी का माँ करती है जैसे

वैसी ही बेचैनी

जिसे वह सर्द रात में ओढ़ लेता है

और तपते दिन में झल लेता है
क्या सोचा होगा महाकवि ने

जब पोस्टमैन ने की होगी जि़द

कि लिख दें वह उसकी प्रेमिका के लिए एक कविता

जिसे वह कहेगा अपनी

कि आपके पास इतनी महिलाओं की चिट्ठी आती है

कि मेरा भी मन करता है कवि बन जाऊँ
नेरूदा के भीतर जागा होगा पिता

साँसों से दुलारा होगा उसे

और उंगली थमा ले गए होंगे समंदर तक

उसे बताया होगा कि सपनों को सपनों की तरह ख़ारिज मत करो

जंगल से मिलो तो हरी पत्ती बनकर

पानी से बन चीनी का दाना

लकड़ी से काग़ज़ और मनुष्य से संगीत बनकर
और जीवन में प्रवेश कर गए होंगे

उसके जीवन में एक सूना डाकख़ाना छोड़

 

वह कर रहा है इंतज़ार जीवन के पार

हरियाली मिठास शब्द और सुर की अर्घ्य देता
वह क्या है जो इस कमरे में नहीं है

जिसके लिए ख़ाली है जगह

इस किताब में नहीं जो छोड़ दिया एक पन्ना सादा

इस कैसेट में जिसके एक ही तरफ़ आवाज़ है

इस शरीर में जिसके मध्य खाई-सी बन गई है

इस शख़्स में जो थकान के बाद भी भटकता है बिस्तर पर

भीतर कहीं टपकता है जल या आँख का नल
जिसके पास रोज़ गट्ठरों में पहुँचती हो चिट्ठी

वह क्यों नहीं देता उसकी चिट्ठी का जवाब

वह जागेगा तब तक सो चुकी होगी दुनिया

फिर वह अपनी अनिद्रा में कसमसाएगा
चाय हमेशा तभी क्यों उबलती है

जब आप किचन में नहीं होते

पंक्तियाँ तभी क्यों आती हैं

जब आपके पास क़लम नहीं होता

लोग तभी क्यों लौटकर आते हैं

जब आपका बदन नहीं होता
पोस्टमैन

तुम्हें नसीब हुआ निर्वासन के सबसे गुप्त द्वीप पर

दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत उंगलियों का साथ

तुमने सहेजकर रखी उस चिडि़या की आवाज़

रिकॉर्डर में डाला लहरों का कलरव

उस धुन को जो कँपाती थी नेरूदा के होंठ

और सबसे अंत में जो तुम्हारी आवाज़ थी

उसमें तुम्हारी उम्मीद को सुना जाना चाहिए
महाकवि जब मरे

तो उनके दिल में एक खाई बन गई थी

लोगों ने कहा

यह उनके देश में लोकतंत्र की मृत्यु के कारण बनी

उनकी सबसे प्यारी चिडि़या के पंख नुँच जाने के कारण

दरअसल

एक अन्याय से हुआ था वहाँ विस्फोट

और उतना टुकड़ा प्रायश्चित कर रहा है

पृथ्वी की परिक्रमा करते हुए

 

पोस्टमैन= जब नेरूदा को चीले से निष्कासित किया गया था और वह भूमध्य सागर के एक द्वीप में रह रहे थे, तब यह पोस्टमैन उनके साथ था। नेरूदा के नाम क्विंटल-क्विंटल डाक आती थी। डाकख़ाना परेशान था। उसने ख़ासकर नेरूदा के लिए इस पोस्टमैन को नियुक्त किया। नेरूदा से अच्छी घनिष्ठता हो जाने के बाद वह भी कविताएँ लिखने लगा। एक दिन नेरूदा उस द्वीप से चले गए। पोस्टमैन उन्हें ख़त लिखता रहा, पर कभी जवाब न आया। काफ़ी समय बाद उसे चिट्ठी मिली जो कि नेरूदा के सचिव ने लिखी थी। महाकवि उस द्वीप पर अपने घर में कुछ चीज़ें भूल आए थे और चाहते थे कि उनका दोस्त पोस्टमैन उन्हें वे चीज़ें भेज दे। पोस्टमैन उनके घर गया। उसे वहाँ एक टेपरिकॉर्डर भी मिला। उसमें उसने वे तमाम आवाजें दर्ज़ कीं, जो नेरूदा को पसंद थीं। चीज़ें भेजने से पहले ही पोस्टमैन ने नेरूदा के बारे में एक कविता लिखी। स्थानीय स्तर पर वह कविता काफ़ी पसंद की गई। उसे माद्रिद से बुलावा आया, उस कविता को पढ़ने के लिए। सभा में वह मंच पर पहुँचकर कविता पढ़ता, इससे पहले भगदड़ मच गई और वह मारा गया। उसकी मौत के कुछ दिन बाद ही नेरूदा उस द्वीप पर लौटे, जहाँ उनके लिए सिर्फ़ दुख और पछतावा बचे थे।



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सुब्हान अल्लाह

सुब्हान अल्लाह - (कवि - गीत चतुर्वेदी)

रात में हम ढेर सारे सपने देखते हैं

सुबह उठकर हाथ-मुँह धोने से पहले ही भूल जाते हैं

हमारे सपनों का क्या हुआ यह बात हमें ज्यादा परेशान नहीं करती

हम कहने लगे हैं कि हमें अब सपने नहीं आते

हमारी गफ़लत की अब उम्र होती जा रही है

हम धीमी गति से सड़क पार करते बूढ़े को देखते हैं

हम जितनी बार दुख प्रकट करते हैं

हमारे भीतर का बुद्ध दग़ाबाज होता जाता है

मद्धिम तरीके से सुनते हैं नवब्याही महिला सहकर्मी से ठिठोली

जब पता चलता है

शादी के बाद वह रिश्वत लेने लगी है

हमारे भीतर एक मूर्ति के चटखने की दास्तान चलती है

वे कौन-सी चीज़ें हैं, जिनने हमें नज़रबंद कर लिया है
हम झुटपुटे में रहते हैं और अचरज करते हैं

अंधेरे और रोशनी में कैसा गठजोड़ है
हमारे खंडहरों की मेहराबों पर आ-आ बैठती है भुखमरी

हमारे तहखानों से बाहर नहीं निकल पाती छटपटाहट

पानी से भरी बोतल में जड़ें फैलाता मनीप्लांट है हमारी उम्मीद

हम सबके पैदा होने का तरीका एक ही है

हम सब अद्वितीय तरीकों से मारे जाएंगे, तय नहीं

कौन-सी इंटीग्रेटेड चिप है जो छिटक गई है दिमाग से

क्या हमारे जोड़ों को ग्रीस की जरूरत है?
अपनी उदासी मिटाने के लिए हममें से कई के शहरों में

होता है कोई पुराना बेनूर मंदिर, नदी का तट

समुद्र का फेनिल किनारा या पार्क की निस्तब्ध बेंच

या घर में ही उदासी से डूबा कोई कमरा होता है अलग-थलग

जिसकी बत्तियाँ बुझा हम धीरे-धीरे जुदा होते हैं जिस्म से
हम पलक झपकते ही दुनिया के किसी भी

हिस्से में साध सकते हैं संपर्क

तुर्रा यह कि कहा जाता है इससे विकराल असंवाद पहले नहीं रहा
कुछ लोगों को शौक है

बार-बार इतिहास में जाने का

दूध और दही की नदियों में तैरने का

उन्हें नहीं पता दूध के भाव अब क्या हो रहे हैं

वे हमारी पशुता पर खीझते हैं

उन्हें बता दूँ ये बेबसी

हमारे लिए सिर्फ गोलियाँ बनी हैं

बंदूक की

और दवाओं की
फिर भी वह कौन-सी ख़ुशी है जो हमारे भीतर है अभी भी

कि हर शाम हम मुस्कराते हैं

अपने बच्चों को खिलाते हैं और दरवाज़ा बंद कर सो जाते हैं
कुछ आड़ी-तिरछी लकीरों और मुर्दुस रंगों वाले

मॉडर्न आर्ट सरीखे अबूझ चेहरों पर नाचता है मसान का दुख

चिता



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सभ्यता के खड़ंजे पर

सभ्यता के खड़ंजे पर - (कवि - गीत चतुर्वेदी)

बॉब डिलन के गीतों के लिए
और उस आदमी को तो मैं बिल्कुल नहीं जानता

जो सिर पर बड़ा-सा पग्गड़ हाथों में कड़ों की पूरी बटालियन

आठ उंगलियों में सोलह अंगूठी

गले में लोहे की बीस मालाएँ

और हथेली में फँसाए एक हथौड़ी

कभी भी कहीं भी नज़र आ जाता था
जिसे देख भय से भौंकते थे कुत्ते

लोगों के पास सुई नहीं होती थी

सिलने के लिए अपनी फटी हुई आँख

जो पागलपन के तमाम लक्षणों के बाद भी पागल नहीं था

जो मुस्करा कर बच्चों के बीच बाँटता था बिस्कुट

बूढ़ी महिलाओं के हाथ से ले लेता था सामान

और घर तक पहुँचा देता था

और इस भलमनसाहत के बावजूद उनमें एक डर छोड़ आता था
वह कितना भला था

इसके ज़्यादा किस्से नहीं मिलते

वह कितना बुरा था

इसका कोई किस्सा नहीं मिलता

जबकि वह हर सड़क पर मिल जाता था
वह कौन-सा ग्रह था

जो उसकी ओर पीठ किए लटका था अनंत में

जिसे मनाने के लिए किया उसने इतना सिंगार

वह कौन-सी दीवार में गाड़ना चाहता था कील

पृथ्वी के किस हिस्से की करनी थी मरम्मत

किन दरवाज़ों को तोड़ डालना था

जो हर वक़्त हाथ में हथौड़ी थामे चलता था
जिसके घर का किसी को नहीं था पता

परिवार नाते-रिश्तेदार का

जिसकी लाश आठ घंटे तक पड़ी रही चौक पर

रात उसी हथौड़ी से फोड़ा गया उसका सिर

जो हर वक़्त रहती थी उसके हाथ में
जो अपनी ही ख़ामोशी से उठता है हर बार

कपड़े झाड़कर फिर चल देता है
उसके तलवों में चुभता है इतिहास का काँटा

उसके ख़ून में दिखती है खो चुकी एक नदी

उसकी आंखों में आया है

अपनी मर्जी से आने वाली बारिश का पानी

उसके कंधे पर लदा है कभी न दिखने वाला बोझ

उसके लोहे में पिटे होने का आकार

उसके पग्गड़ के नीचे है सोचने वाला दिमाग़

सोच-सोचकर दुखी होने वाला
वह कब से चल रहा है

चलता ही जा रहा है

सभ्‍यता के इस खड़ंजे पर

उसे करना होगा कितना लंबा सफ़र

यह जताने के लिए कि वह मनुष्य ही है



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मुंबई नगरिया में मेरा ख़ानदान

मुंबई नगरिया में मेरा ख़ानदान - (कवि - गीत चतुर्वेदी)

पिता पचपन के हैं पैंसठ से ज़्यादा लगते हैं

पच्चीस का भाई पैंतीस से कम का

क्या इक्कीस का मैं तीस-बत्तीस का दिखता हूं

माँ-भाभी भी बुढ़ौती की देहरी पर खड़े

बिल्‍कुल छोटी भतीजी है ढाई साल की

लोग पूछते हैं पाँच की हो गई होगी

पता नहीं क्या है परिवार की आनुवांशिकता

जीन्स डब्ल्यूबीसी हीमोग्लोबीन हार्मोन्स ऊतक फूतक सूतक

क्या कम है क्या ज़्यादा

धूप में रखते हैं बदन का पसीना

या पहले-चौथे ग्रह में बैठे वृद्ध ग्रह का कमाल

चिकने चेहरों से भरी इस मुंबई नगरिया में

मेरा ख़ानदान कितना संघर्षशील है सो असुंदर है

अभी कल ही तो भुजंग मेश्राम पूछकर गया था

उम्र से अधिक दिखना औक़ात से अधिक दिखना होता है क्या?

अभी कल ही तो पूछ कर गया था भुजंग मेश्राम

माईला… ये पचास साल का लोकतंत्र

उन लोगों को कायको पांच हज़ार का है लगता?



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मालिक को ख़ुश करने के लिए किसी भी सीमा तक जाने वाला मानवीय दिमाग़ और

मालिक को ख़ुश करने के लिए किसी भी सीमा तक जाने वाला मानवीय दिमाग़ और - (कवि - गीत चतुर्वेदी)

मालिक को ख़ुश करने के लिए किसी भी सीमा तक जाने वाला मानवीय दिमाग़ और अपनी नस्ल का शुरुआती जूता

राजकुमारी महल के बाग़ में विचर रही थीं कि एक काँटे ने उनके पैरों के साथ गुस्ताख़ी की और बजाय उसे दंडित करने के राजकुमारी बहुत रोईं और बहुत छटपटाईं और बड़े जतन से उन्हें पालने वाले राजा पिता तड़पकर रह गए और महल के गलियारों और बार्जों में खड़े हो धीरे-धीरे बड़ी हो रही राजकुमारी के पैरों से किसी तरह काँटा निकलवाया और हुक्मनामा जारी करवाया कि राज्य में काँटों की गुस्ताख़ी हद से ज़्यादा हो गई है और उन्‍हें समाप्त करने की मुहिम शुरू कर दी जाए पर योजनाओं के असफल रहने और मुहिमों के बाँझ रह जाने की शुरुआत के रूप में ढाक बचा और ढाक के तीन पात बचे तो राजा ने आदेश दिया कि सारे राज्य की सड़कों और महल के पूरे हिस्से की ज़मीन पर फूलों की चादर बिछा दी जाए पर चूँकि फूल बहुत जल्दी मुरझा जाते हैं सो यह संभव न हुआ तो राजा ने अपने एक भरोसेमंद मंत्री को इसका इलाज निकालने की ज़िम्मेवारी दी तो उस मंत्री ने बजाय सारी ज़मीन पर फूल बिछाने के राजकुमारी के पैरों पर ध्यान जमाया और नर्म कपड़े की कई तहों को चिपकाकर मोटी-सी कोई चीज़ बनाई और राजकुमारी को पहना दी जिसके पार काँटा क्या काँटे का बाप भी नहीं पहुंच सकता था और इस तरह एक आदिम जूते का निर्माण हुआ हालाँकि जूतेनुमा एक चीज़ बनाने वाले उसे मंत्री क़िस्म के मानव ने राजकुमारी क़िस्म की किसी महिला के पैरों को काँटों से बचाने के लिए इलाज ढूंढ़ने से पहले ख़ुद भी कई बार काँटों को भुगता था और दूसरे तमाम लोगों के भी काँटा चुभते देखा था पर नौकर की जमात का वह व्यक्ति मात्र स्वामीभक्ति के पारितोषिक के लिए ही जूता बना पाया।



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नीम का पौधा

नीम का पौधा - (कवि - गीत चतुर्वेदी)

यह नीम का पौधा है
जिसे झुक कर
और झुक कर देखो
तो नीम का पेड़ लगेगा
और झुको, थोड़ा और
मिट्टी की देह बन जाओ
तुम इसकी छाँह महसूस कर सकोगे

इसे एक छोटी बच्ची ने पानी दे-देकर सींचा है
इसकी हरी पत्तियों में वह कड़ुआहट है जो
ज़ुबान को मीठे का महत्त्व समझाती है
जिन लोगों को ऊँचाई से डर लगता है
वे आएँ और इसकी लघुता से साहस पाएँ



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नश्तर

नश्तर - (कवि - गीत चतुर्वेदी)

मराठी कवि स्व. भुजंग मेश्राम के लिए
पीड़ाओं का विकेंद्रीकरण हो रहा है और दुख का निजीकरण

दर्द सीने में होता है तो महसूस होता है दिमाग में

दिमाग से उतरता है तो सनसनाने लगता है शरीर

प्रेम के मक़बरे जो बनाए गए हैं वहाँ बैठ प्रेम की इजाज़त नहीं

पुरातत्वविदों का हुनर वहाँ बौखलाया है

रेडियोकार्बन व्यस्त हैं उम्रों की शुमारी में

सभ्‍यताओं ने इतिहास को काँख में चाँप रखा है

आने वाले दिनों के भले-बुरेपन पर बहस तो होती ही है

मरे हुए दिनों की शक्लोसूरत पर दंगल है

तीन हज़ार साल पहले की घटना तय करेगी

किसे हक़ है यह ज़मीन और किसके तर्क बेमानी हैं

कौन मज़बूर है कौन गाफ़िल

किसने युद्ध लड़ा आकाश में कौन मरा मुंबै में

बरसों सोच किसने मुँह से निकाले कुछ लफ़्ज़

एक साथ एक अरब लोगों की रुलाहट के बाद उसके

कानों पर वह कौन-सी जूँ है जिसे बेडि़याँ बंधीं

किन किसानों ने कीं खुदकुशियाँ

वी.टी. की एक इमारत ने किया लोगों को रातो-रात ख़ुशहाल

कितने कंगाल हुए भटक गए

हरे पेड़ों की तरह जला दिए गए लोग

जबरन माथे पर खोदे गए कुछ चिह्न

तुलसी के पौधों पर लटके बेरहम साँपों की फुफकार

लाचार घासों को डसने का शगल

इस तरफ़ कुछ लोग आए हैं जो बड़े प्रतीकों-बिंबों में बात करते हैं

इसकी मज़बूरी और मतलब

मालूम नहीं पड़ता

बताओ, दिल पर नहीं चलेंगे नश्तर तो कहां चलेंगे



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