हिन्दी साहित्य काव्य संकलन: औरत है एक कतरा

मंगलवार, 21 फ़रवरी 2012

औरत है एक कतरा

औरत है एक कतरा - (कवि - कमलेश भट्ट 'कमल')

औरत है एक कतरा, औरत ही ख़ुद नदी है
देखो तो जिस्म, सोचो तो कायनात-सी है।
संगम दिखाई देता है उसमें गम़-खुशी का
आँखों में है समन्दर, होठों पे इक हँसी है।
ताकत वो बख्श़ती है ताकत को तोड़ सकती
सीता है इस ज़मीं की, जन्नत की उर्वशी है।
आदम की एक पीढ़ी फिर खाक हो गई है
दुनिया में जब भी कोई औरत कहीं जली है।
मर्दों के हाथ औरत बाज़ार हो रही है
औरत का ग़म नहीं ये मर्दों की त्रासदी है।


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