हिन्दी साहित्य काव्य संकलन: गुज़रे दिनों की याद बरसती घटा लगे

शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2012

गुज़रे दिनों की याद बरसती घटा लगे

गुज़रे दिनों की याद बरसती घटा लगे - (कवि - क़तील शिफ़ाई)

गुज़रे दिनों की याद बरसती घटा लगे
गुज़रूँ जो उस गली से तो ठंडी हवा लगे

मेहमान बन के आये किसी रोज़ अगर वो शख़्स
उस रोज़ बिन सजाये मेरा घर सजा लगे

मैं इस लिये मनाता नहीं वस्ल की ख़ुशी
मेरे रक़ीब की न मुझे बददुआ लगे

वो क़हत दोस्ती का पड़ा है कि इन दिनों
जो मुस्कुरा के बात करे आश्ना लगे

तर्क-ए-वफ़ा के बाद ये उस की अदा “क़तील”
मुझको सताये कोई तो उस को बुरा लगे



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