हिन्दी साहित्य काव्य संकलन: एक पैसे में...

शनिवार, 25 फ़रवरी 2012

एक पैसे में...

एक पैसे में... - (कवि - घनश्याम कुमार 'देवांश')

सुबह बहुत उदास थी
और मेरे भाड़े के कमरे में
धूप के तंतु ओढ़े
दूर तक पसर आई थी
कोई किसी से कुछ नहीं कह रहा था
दरवाज़े के बाहर की चिड़िया भी
रेलिंग पर हिलती डुलती
खामोश बैठी थी
और हवा का संवादहीन शोर
एक निरर्थक सायरन की तरह
बज रहा था
जबकि मैं इस सवाल से जूझ रहा था
कि सुबह इतनी सुबह सुबह
आखिर इतनी उदास क्यों थी
कि,
सबके सब ही जैसे उदास थे,
चुप थे,जबकि
कालदरें इतनी सस्ती थीं
कि पूरे दिन और पूरी रात
सिर्फ एक पैसे में
बात की जा सकती थी…..



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