हिन्दी साहित्य काव्य संकलन: दयारे-गै़र में सोज़े-वतन की आँच न पूछ

बुधवार, 29 फ़रवरी 2012

दयारे-गै़र में सोज़े-वतन की आँच न पूछ

दयारे-गै़र में सोज़े-वतन की आँच न पूछ - (कवि - फ़िराक़ गोरखपुरी)

दयारे-गै़र1 में सोज़े-वतन की आँच न पूछ
ख़जाँ में सुब्हे-बहारे-चमन की आँच न पूछ

फ़ज़ा है दहकी हुई रक्‍़स में है शोला-ए-गुल
जहाँ वो शोख़ है उस अंजुमन की आँच न पूछ

क़बा में जिस्म है या शोला जेरे-परद-ए-साज़2
बदन से लिपटे हुए पैरहन की आँच न पूछ

हिजाब में भी उसे देखना क़यामत है
नक़ाब में भी रुखे-शोला-ज़न की आँच न पूछ

लपक रहे हैं वो शोले कि होंट जलते हैं
न पूछ मौजे-शराबे-कुहन की आँच न पूछ

फ़ि‍राक आइना-दर-आइना है हुस्ने -निगार
सबाहते-चमन-अन्दर-चमन की आँच न पूछ

1- दूसरों की गली, 2- साज़ के परदे के पीछे



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