हिन्दी साहित्य काव्य संकलन: जब भी चाहें एक नई सूरत बना लेते हैं लोग

शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2012

जब भी चाहें एक नई सूरत बना लेते हैं लोग

जब भी चाहें एक नई सूरत बना लेते हैं लोग - (कवि - क़तील शिफ़ाई)

जब भी चाहें एक नई सूरत बना लेते हैं लोग
एक चेहरे पर कई चेहरे सजा लेते हैं लोग

मिल भी लेते हैं गले से अपने मतलब के लिए
आ पड़े मुश्किल तो नज़रें भी चुरा लेते हैं लोग

है बजा उनकी शिकायत लेकिन इसका क्या इलाज
बिजलियाँ खुद अपने गुलशन पर गिरा लेते हैं लोग

हो खुशी भी उनको हासिल ये ज़रूरी तो नहीं
गम छुपाने के लिए भी मुस्कुरा लेते हैं लोग

ये भी देखा है कि जब आ जाये गैरत का मुकाम
अपनी सूली अपने काँधे पर उठा लेते हैं लोग



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