मेरी ही धूप के टुकड़े चुरा के लाता है
मेरा ही चाँद मुझे कहकशाँ दिखाता है
ये किसकी प्यास से दरिया का दिल है ख़ौफज़दा
हवा भी पास से ग़ुज़रे तो थरथराता है
बदन की प्यास वो शै है कि कोई सूरज भी
सियाह झील की बाँहों में डूब जाता है
अना के दार पे इक शाहराह खुलती है
जिसे कि बस कोई बेदार देख पाता है
बदनफरोश हुये आज रूह के रहबर
ये वक्त देखिये अब और क्या दिखाता है
कोई हक़ीर भटकता है शाहराहों पर
अना का दश्त मुझे रास्ता दिखाता है
उसी ने नाम लिखा ज़िन्दगी के कागज़ पर
ये और बात वही बाद में मिटाता है
वो शख़्स ख़ुद ही कोई तिश्नगी का सहरा है
जो इक सराब दिखा कर मुझे बुलाता है
मयंक अवस्थी
अना के दार =स्वाभिमान की सूली
शाहराह ==राजपथ
हक़ीर ==तुच्छ
बदनफरोश= शरीर बेचने वाले
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