हिन्दी साहित्य काव्य संकलन: ग़लतफ़हमी

बुधवार, 22 फ़रवरी 2012

ग़लतफ़हमी

ग़लतफ़हमी - (कवि - अरुण कमल)

उसने मुझे आदाब कहा और पूछा अरे कहाँ रहे इतने रोज़
सुना आपके मामू का इंतकाल हो गया?

कौन? लगता है आपको कुछ…

आप वो ही तो जो रमना में रहते हैं इमली के पेड़ के पीछे?
नहीं, मैं…

अरे भई माफ़ कीजिए बिल्कुल वैसे ही दिखते हैं आप
वैसी ही शक्ल बाल वैसे ही सुफ़ेद और रंग भी…

कोई बात नहीं भाई हम तो चाहते हैं कि एक चेहरा दूसरे से
दूसरा तीसरे से मिले और फिर सब एक से लगें, सब में सब–
और हर बार हम सही से ज़्यादा ग़लत हों।



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