ख्व़ाब छीने, याद भी सारी - (कवि - कमलेश भट्ट 'कमल')
ख्व़ाब छीने, याद भी सारी पुरानी छीन ली
वक़्त ने हमसे हमारी हर कहानी छीन ली।
पर्वतों से आ गई यूँ तो नदी मैदान में
पर उसी मैदान ने सारी रवानी छीन ली।
दौलतों ने आदमी से रूह उसकी छीनकर
आदमी से आदमी की ही निशानी छीन ली।
देखते ही देखते बेरोज़गारी ने यहाँ
नौजवानों से समूची नौजवानी छीन ली।
इस तरह से दोस्ती सबसे निभाई उम्र ने
पहले तो बचपन चुराया फिर जवानी छीन ली।
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ख्व़ाब छीने, याद भी सारी पुरानी छीन ली
वक़्त ने हमसे हमारी हर कहानी छीन ली।
पर्वतों से आ गई यूँ तो नदी मैदान में
पर उसी मैदान ने सारी रवानी छीन ली।
दौलतों ने आदमी से रूह उसकी छीनकर
आदमी से आदमी की ही निशानी छीन ली।
देखते ही देखते बेरोज़गारी ने यहाँ
नौजवानों से समूची नौजवानी छीन ली।
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