कहाँ एतौ पानिप बिचारी पिचकारी धरै,
- आँसू नदी नैनन उमँगिऐ रहति है ।
कहाँ ऐसी राँचनि हरद-केसू-केसर में,
- जैसी पियराई गात पगिए रहति है ॥
चाँचरि-चौपहि हू तौ औसर ही माचति, पै-
- चिंता की चहल चित्त लगिऐ रहति है ।
तपनि बुझे बिन 'आनँदघन' जान बिन,
- होरी सी हमारे हिए लगिऐ रहति है ॥
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