हिन्दी साहित्य काव्य संकलन: तुम्हारी अंजुमन से उठ के दीवाने कहाँ जाते

शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2012

तुम्हारी अंजुमन से उठ के दीवाने कहाँ जाते

तुम्हारी अंजुमन से उठ के दीवाने कहाँ जाते - (कवि - क़तील शिफ़ाई)

तुम्हारी अंजुमन से उठ के दीवाने कहाँ जाते
जो वाबस्ता हुए तुमसे वो अफ़साने कहाँ जाते

निकल कर दैर-ओ-क़ाबा से अगर मिलता न मैख़ाना
तो ठुकराए हुए इन्साँ ख़ुदा जाने कहाँ जाते

तुम्हारी बेरुख़ी ने लाज रख ली बादाख़ाने[1] की
तुम आँखों से पिला देते तो पैमाने कहाँ जाते

चलो अच्छा हुआ काम आ गयी दीवानगी अपनी
वगरना हम ज़माने को ये समझाने कहाँ जाते

'क़तील' अपना मुक़द्दर ग़म से बेग़ाना[2] अगर होता
तो फिर अपने-पराए हमसे पहचाने कहाँ जाते



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