ऐ इश्क़ तूने अक्सर क़ौमों को खा के छोड़ा - (कवि - अल्ताफ़ हुसैन हाली)
ऐ इश्क़! तूने अक्सर क़ौमों को खा के छोड़ा
जिस घर से सर उठाया उस घर को खा के छोड़ा
अबरार तुझसे तरसाँ अहरार तुझसे लरज़ाँ
जो ज़द पे तेरी आया इसको गिरा के छोड़ा
रावों के राज छीने, शाहों के ताज छीने
गर्दनकशों को अक्सर नीचा दिखा के छोड़ा
क्या मुग़नियों की दौलत,क्या ज़ाहिदों का तक़वा
जो गंज तूने ताका उसको लुटा के छोड़ा
जिस रहगुज़र पे बैठा तू ग़ौले-राह बनकर
सनआँ-से रास्तरौ को रस्ता भुला के छोड़ा
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ऐ इश्क़! तूने अक्सर क़ौमों को खा के छोड़ा
जिस घर से सर उठाया उस घर को खा के छोड़ा
अबरार तुझसे तरसाँ अहरार तुझसे लरज़ाँ
जो ज़द पे तेरी आया इसको गिरा के छोड़ा
रावों के राज छीने, शाहों के ताज छीने
गर्दनकशों को अक्सर नीचा दिखा के छोड़ा
क्या मुग़नियों की दौलत,क्या ज़ाहिदों का तक़वा
जो गंज तूने ताका उसको लुटा के छोड़ा
जिस रहगुज़र पे बैठा तू ग़ौले-राह बनकर
सनआँ-से रास्तरौ को रस्ता भुला के छोड़ा
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